पुस्तक
समीक्षा
दीमक : एक जरूरी व्यंग्य उपन्यास
सुभाष चंदर
शशिकांत
सिंह ‘ शशि’ हिन्दी व्यंग्य के उन
रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने हमेशा सो सोद्देश्य सरोकारपरक व्यंग्य लेखन को
प्राथमिकता दी है। उनके लिए व्यंग्य बैठे ठाले का शगल न होकर बदलाव का एक माध्यम
है। सामान्यतः अपनी व्यंग्य कथाओं के लिए चर्चित रहे शशिकांत, इन दिनों व्यंग्य उपन्यासों
के क्षेत्र में आए सन्नाटे को तोड़ने का सर्थक प्रयास कर रहे हैं।
दीमक उनका दूसरा व्यंग्य उपन्यास है जो शिक्षा जगत की
विसंगतियों की बहुत गहरे में जाकर पड़ताल करता है। बिहार के पिछड़े हुए गाँव
रामपुरा का हाई स्कूल उपन्यास के केन्द्र में हैं। इस स्कूल में वे सब विद्रूप हैं
जो देश के किसी भी पिछड़े गाँव के स्कूल में आसानी से दिख जाते हैं। जातिवाद, भाई भतीजावाद, सरकारी निधियों की हड़पनीति, अध्यापकों और विद्यार्थियों
के बीच के बिगड़ते सम्बंध, पढ़ाने
-पढ़ने के प्रति उदासीनता, शैक्षिक
राजनीति के कुचक्र सब यहां पर भी हैं । अपने ढ़र्रे पर चल रहे इस स्कूल में समीर
कुमार नाम का एक आदर्शवादी अध्यापक आता है जो इस माहौल को बदलने की कोशिश करता
है वह विद्यार्थियों को आदर्श का पाठ पढ़ाना चाहता है उन्हें अच्छा नागरिक बनाना
चाहता है। अन्य अध्यापकों को भी प्रेरित करने की कोशिश करता है। पर स्कूली राजनीति
के कुचक्र उसे कदम-कदम पर हतोत्साहित करते हैं। यहाँ तक कि छात्रों
को नकल से रोकने पर उसके हाथ पांव भी तोड़ दिये जाते हैं। वह शिक्षा के खेत को
दीमकों से बचाकर रखने की हरचन्द कोशिश करता है पर दीमकें अपना काम कर ही जाती हैं ।
उपन्यास में लेखक ने ग्रामीण क्षेत्र के स्कूल के अन्दर और
बाहर की परिस्थितियों का सजीव और प्रामाणिक चित्रण किया है। कुछ प्रसंग तो ऐसे हैं
जिन्हें पाठक बहुत दिनों तक याद रखेगा। मंलग द्वारा समीर को जबरन विवाह के लिए
उठाने की कवायद, विकास
निधि के ठेके का विधायक जी को मिलना, समीर की पिटाई, पुस्तकालय प्रकरण ऐसे ही
प्रसंग है जहाँ लेखक की कलम का जादू सर चढ़कर बोलता है।
उपन्यास की भाषा सहज, सरल एंव पात्रानुरूप है। कहीं
– कहीं
क्षेत्रीय भाषा का हस्तक्षेप प्रवाह को बाधित करने का प्रयास करता है। गनीमत यह है
कि ऐसा कम ही स्थानों पर हुआ है। उपन्यास में विट तो बहुत नहीं है, पर उसकी भरपाई वक्रोक्ति और
सांकेतिकता ने अच्छे से की है। कुछ जगहों पर अच्छे सूत्र वाक्य भी आये है, मसलन – फुटबॉल कुछ दिनों तक मैदान
में मारा – मारा
फिरा, फिर
खेल शिक्षक ने उसे आजीवन कारावास की सज़ा दे दी क्योंकि खेल का सामान इश्यू करना
झंझट का काम था। या गरीबी की बस जाने ही वाली थी और समाजवाद सड़क
के किनारे बैग लेकर खड़ा था ताकि बस पकड़कर दिल्ली पहुंच जाये। मेरी दृष्टि में
दीमक व्यंग्य उपन्यासों की श्रृंखला में एक जरूरी उपन्यास है। व्यंग्य के पाठकों
के लिए इस उपन्यास से होकर गुज़रना एक न भूलने वाला अनुभव होगा।
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