Saturday, October 31, 2015

हास्य और व्यंग्य के बीच का अंतर

हास्य और व्यंग्य के बीच मूलभूत अंतर है | दोनों की प्रकृति बिलकुल अलग है | दोनों का प्रभाव क्षेत्र अलग अलग है | हास्य का कार्य जहाँ पाठक का मनोरंजन करना है,उसे हँसाना-गुदगुदाना होता है | वहीँ व्यंग्य का कार्य प्रहार करना है,विसंगति के मर्म को पहचान कर उसके जिस्म में नश्तर चुभोने जैसा है | हास्य रचना की समाप्ति पर पाठक खिलखिलाता है,वहीँ अच्छे व्यंग्य की समाप्ति पर पाठक अव्यवस्था के विरुद्ध  खीझ और आक्रोश से भर उठता है |
हास्य और व्यंग्य पाठक वर्ग के भीतर का विभेद है | हास्य का पाठक और श्रोता सामान्य से सजग पाठक तक कोई भी हो सकता है | उसका आनंद उठा सकता है जबकि गंभीर व्यंग्य का पाठक भी गंभीर प्रवृति का हो सकता है ताकि व्यंग्य के कथ्य,प्रहरात्मकता और प्रतीयमान अर्थ को सही अर्थों में ग्रहण कर सके |
मेरी दृष्टि में हास्य और व्यंग्य के बीच का अंतर इस प्रकार है “एक पौधे से गुलाब के फूल को तोडना और उसकी खुशबू लेने का आनंद हास्य है, तो व्यंग्य उसी टहनी पर लगे कांटो के दर्द का अहसास है | हास्य का आधार मनोरंजन है तो व्यंग्य का संवेदना” 

कई बार हास्य और व्यंग्य के आलंबन एक जैसे हो सकते हैं | उदाहरण के तौर पर किसी पार्टी में एक व्यक्ति अपनी तोंद पर प्लेट रखे खड़ा है | इसी पर रचना लिखी जा रही है | हास्य रचना में मोटे व्यक्ति के मोटापे, उसके खड़े होने की शैली, उसका पहनावा,तोंद पर प्लेट रखने के अटपटे ढंग से रखने के कारण हास्य की सृष्टि की जा सकती है | किन्तु व्यंग्यकार के लिए इस व्यक्ति का मोटापा या तोंद पर रखी प्लेट किसी काम की नहीं बशर्ते कि वह भ्रष्ट राजनेता या रिश्वतखोर नौकरशाह नहीं है | यदि वाह भ्रष्ट है तो व्यंग्यकार उसके मोटापे के पीछे की परतों को खोलेगा, बताएगा कि उस नेता के पेट में कितनी टन फाइलें,घोटालों, भाई भतीजावाद और कमीशन खोरी के भारी भरकम बोरे छिपे हैं |उसकी तोंद के मोटे होने का रहस्य यही है | इस सब विवरण को वह भाषा के प्रचलित प्रतिमानों के खिलवाड़ के साथ इस प्रकार प्रस्तुत करेगा कि हास्य की सृष्टि करती दिखने वाली यह रचना तीखे और कटु व्यंग्य में परिवर्तित हो जायेगी |

Tuesday, October 27, 2015

  1. kuchh prash aur unke uttar 
  2. गंभीर सिंहOctober 26, 2015 at 7:43 AM
    आजकल लोग व्यंग्य को भी व्यंग्य के रुप में लेते हैं। उसकी गंभीरता को नहीं समझते। क्यों?
    Reply
  3. इसके पीछॆ का कारण कुछ लेखकों और संपादकों की लापरवाही और अज्ञान- है ! अच्छे व्यंग्य के लिए जरूरत होती है विसंगति की पकड़ ,भाषा और शैली पर नियंत्रण ,सरोकारों के प्रति गंभीरता और प्रहारात्मक्ता की ...इन सब के सही संतुलन से एक अच्छे व्यंग्य का जन्म होता है ..अगर ऐसा नही है और उसके स्थान पर राजनीति ,समाज या किसी व्यक्ति विशेष पर चटखारेदार टिप्पणी को व्यंग्य रचना समझ लिया जाता है तो ऐसी स्थतिया आ सकती हैं ! ( श्री गंभीर सिंह के प्रश्न के उत्तर में )

Sunday, October 25, 2015

व्यंग्य क्या है ? एक दृष्टि



"मेरीदृष्टि में व्यंग्य वह गंभीर रचना है जिसमें व्यंग्यकार विसंगति की तह में जाकर उस पर वक्रोक्ति,
वाग्वैदग्ध आदि भाषिक शक्तियों के माध्यम से तीखा प्रहार करता है | उसका लक्ष्य पाठक को गुदगुदाना न
  होकर उससे करुणा,खीज अथवा आक्रोश की पावती लेना होता है |"
पाश्चात्य परम्परा की ओर यदि देखें तो पाते हैं कि प्रारम्भ में पश्चिम  में भी हास्य ओर व्यंग्य यानी ह्यूमर और सटायर के बीच कोई विवेधक सीमा रेखा नहीं थी, इसलिए पश्चिम के विद्वानों ने व्यंग्य को हास्य के साथ जोड़कर परिभाषित करने का प्रयास किया | प्रसिद्ध विदेशी विद्वान मेरिडिथ के अनुसार महान हास्यकार की कौशल पूर्ण कृति में उसके हास्य के साथ साथ व्यापक करुणा का भी समावेश होता है |
यदि आप हास्यास्पद का इतना अधिक मजाक उड़ाते हैं कि उसमे दयालुता ही समाप्त हो जाये तो आप व्यंग्य की सीमाओं में प्रवेश कर जाते हैं |
पाश्चात्य साहित्य की ही भांति प्रारम्भ में हिंदी में भी हास्य और व्यंग्य को एक ही तराजू में तौलकर परिभाषित करने का प्रयास किया गया किन्तु स्वातंत्र्योत्तर काल में स्थिति स्पष्ट होती गयी |हास्य और व्यंग्य के निहितार्थो के अंतर को देखते हुए उन्हें अलग अलग विधाओं के रूप में देखा जाने लगा |

हजारीप्रसाद  दिवेदी  ने अपनी पुस्तक 'कबीर' में हास्य को व्यंग्य के साथ जोड़ते हुए व्यंग्य को परिभाषित करने का प्रयास किया |उन्होंने लिखा है -- "व्यंग्य वह है जहाँ कहने वाला अधरोष्ठो में  हँस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर कहने वाले को जबाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना हो जाता हो "

प्रसिद्ध व्यंग्यकार  एवं आलोचक डा.बरसाने लाल चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य में हास्य रस' में भी व्यंग्य को अपने ढंग से  परिभाषित करने का प्रयास किया है | उनके अनुसार "आलम्बन के प्रति तिरस्कार या भर्त्सना की भावना को लेकर बढ़ने वाला हास्य ही व्यंग्य है |
किन्तु इसमें अनावश्यक रूप से से हास्य को व्यंग्य के समान बताने का आग्रह है |